कांटा भारत को चुभता है तो दर्द रूस को होता है, ये दोस्ती है

अलोक कुमार
नई दिल्ली : सोवियत संघ के आखिरी शासक मिखाइल गोर्बाचेव मॉस्को से सटे कलचुगा में मुस्कुरा रहे होंगे जहां उनका घर है। संघ के विघटन तक भारत के साथ दोस्ती का हाथ मजबूती से थामे रहे गोर्बाचेव दो मार्च को 92 साल के हो गए। मुस्कुराना लाजिमी है क्योंकि रूस-यूक्रेन युद्ध ने दुनिया की तस्वीर बदल दी है। भारत की तटस्थता को रूस का साथ माना जा रहा है। गोर्बाचेव सोच रहे होंगे इतिहास दोहराया जा रहा है। ख्रुश्चेव, ब्रेझनेव से लेकर गोर्बाचेव तक सोवियत संघ के सारे नेताओं ने भारत का हाथ मजबूत किया। सोवित संघ के विघटन के बाद भले ही औपचारिक तौर पर शीत युद्ध खत्म माना गया लेकिन उसके खिलाफ बना उत्तर अटलांटिक संधि संगठन यानी नाटो कभी खत्म नहीं हुआ। अमेरिका की शह पर मजबूत होता रहा और यूक्रेन के सहारे रूस की चौखट तक पहुंच गया। हालांकि पिछले तीन दशकों में रणनीतिक-कूटनैतिक बदलावों ने सारे समीकरण ध्वस्त कर दिए थे। रूस से दोस्ती जारी रखते हुए भारत अब अमेरिका के बहुत करीब आ चुका। चीन पर दोनों देशों की एक राय है। उधर रूस और चीन साथ आ गए हैं। पहले अमेरिका और अब चीन की शह पर पाकिस्तान इतरा रहा है। लेकिन यूक्रेन युद्ध ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि संयुक्त राष्ट्र में भारत, पाकिस्तान और चीन की नीति समान हो गई। तीनों देशों ने रूस के खिलाफ वोट करने से इनकार कर दिया। जंग के आठ दिनों में व्लादिमीर पुतिन और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दो बार बात कर चुके हैं। अब यूक्रेन में फसे भारतीय छात्रों को सुरक्षित गलियारा देने में रूसी सेना मदद करेगी।

भारत-रूस दोस्ती में गोर्बाचेव का जिक्र इसलिए कर रहा हूं कि जिस तरह आज कुछ अमेरिकी सीनेटर, ब्रिटेन या कहिए कुल मिलाकर पश्चिमी देश भारत की तटस्थता पर हमें घेरने की कोशिश कर रहे हैं, उसी तरह की कोशिश पहले भी कर चुके हैं। साथ-साथ हम उन्हें चौंकाते भी रहे हैं। सोवियत नेता मिखाइल गोर्बाचेव और राजीव गांधी ने 27 नवंबर 1986 को जब दिल्ली घोषणापत्र जारी किया तो अमेरिका और यूरोप सन्न रह गए थे। इसे पूरी दनिया डेल्ही डिक्ल्यरेशन के तौर पर जानती है। राजीव का हाथ थामे मिखाइल गोर्बाचेव ने कहा था अगर भारत की अखंडता और एकता पर कोई भी खतरा पैदा हुआ तो सोवियत संघ चुप नहीं बैठेगा। अगली लाइनें थीं – हम अपनी विदेश नीति में एक कदम भी ऐसा नहीं बढ़ाएंगे जिससे भारत के वास्तविक हितों पर चोट पहुंचती हो। सोवियत संघ आपके देश के खिलाफ सभी साजिशों और कुत्सित सोच की भर्त्सना करता है।

इससे ठीक पहले अमेरिकी रक्षा मंत्री कैस्पर वीनबर्जर ने दिल्ली होते हुए इस्लामाबाद जाकर उसे एफ-16 देने का वादा किया था। हमने तब भी और अब भी अमेरिकी नेताओं को दिल्ली रूट से इस्लामाबाद जाकर बदलते देखा है। अमेरिकी रूख में बदलाव तो अब हुआ है। जब हम दुनिया की छठी सबसे ज्यादा जीडीपी वाली इकॉनमी हैं और बड़ी एटमी ताकत हैं। गुट निरपेक्ष आंदोलन का हिस्सा रहते हुए भी 90 के दशक तक अमेरिका ने हमेशा अपने हित साधे। हमारे हितों को ताक पर रखते हुए पहले सोवियत संघ फिर रूस के खिलाफ सर्वोच्चता के जंग में पाकिस्तान का इस्तेमाल किया। जब खुद चीन का कर्जदार बन गया और सीधी चुनौती मिलने लगी तो उसे भारत का साथ पसंद आ रहा है। ये अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक बदलावों में स्वाभाविक भी है। लेकिन हम खुद महाशक्ति बनने की तरफ अग्रसर हैं तो अपनी विदेश नीति किसी के मन मुताबिक रखने पर बाध्य नहीं हो सकते।

रूस के खिलाफ वोट नहीं करने के बाद अमेरिकी हलकों में काटसासे भारत को मिली छूट बंद करने की मांग हो रही है। रूस पर पहले से ही कुछ प्रतिबंध अमेरिका ने लगाए थे और अब और कड़े प्रतिबंध लगा दिए गए हैं। इसके तहत रूस से घातक हथियार खरीदने वालों पर भी अमेरिका प्रतिबंध लगाता है। और हम रूस से एस-400 मिसाइल सिस्टम ले रहे हैं। चीन के खिलाफ अपने हितों की रक्षा के लिए अमेरिका ने भारत को अपवाद मान छूट दे रखी थी। अमेरिका अब इस छूट को खत्म करना चाहता है तो ये उसका फैसला होगा। साफ है अमेरिका अपने हिसाब से सोचता रहा है और सोचता रहेगा। ये उसकी आजादी है। भारत की अपनी।
जहां तक रूस के साथ भारत के संबंधों का सवाल है तो ये आज के हैं नहीं। दिल्ली समझौते या पुतिन के साथ एस-400 की डील से काफी पहले से चले आ रहे हैं। 1955 में जब जवाहरलाल नेहरू मॉस्को गए तो निकिता ख्रुश्चेव के साथ उनकी जबर्दस्त दोस्ती की शुरुआत हुई। रूस ने अपनी टेक्नोलॉजी तभी से भारत को देनी शुरू की। भिलाई स्टील प्लांट से हुई शुरुआत ने भारत को आर्थिक तौर पर उठ खड़ा होने में जबर्दस्त सहयोग दिया। तब चीन के मुद्दे पर भी नेहरू और ख्रुश्चेव एक साथ रहे। इसका कारण था माओ त्से तुंग और ख्रुश्चेव के बीच तनानती। 1962 की लड़ाई के बाद रूसी मदद मिलनी और तेज हो गई। इंदिरा गांधी ने 1965 में मॉस्को में राजदूत टीएन कॉल के जरिए जानना चाहा कि पाकिस्तान के साथ जंग की स्थिति में सोवियत संघ क्या सोचता है। इस पर रूस ने साफ कहा कि चीन की विस्तारवादी नीतियों को रोकने में भारत मुख्य भूमिका निभा सकता है लेकिन पाकिस्तान के साथ विवादों में खुद फंसा हुआ है, इसलिए सोवियत संघ भारत के बुनियादी हितों को ध्यान में रखते हुए आगे बढ़ेगा।

1971 में पाकिस्तान के साथ जंग से ठीक पहले इंदिरा गांधी और ब्रेझनेव ने फ्रेंडशिप ट्रिटी पर दस्तखत किए। अमेरिका इससे बुरी तरह हिल गया। भारत ने एक बार फिर चौंकाय ही तो था। रिचर्ड निक्सन को लगा कि नाम मूवमेंट के तहत इस तरह का समझौता भारत नहीं करेगा। लेकिन फ्रेंडशिप ट्रिटी भारत-रूस रिश्तों में मील का पत्थर साबित हुई। इसके तहत स्पष्ट किया गया कि दोनों देश ऐसे मिलिट्री अलायंस से परहेज करेंगे जो दोनों में से किसी एक के हित के खिलाफ हो और अगर कोई तीसरा देश अटैक करता है तो आपस में संपर्क करेंगे। इसका टेस्ट दिसंबर में ही हो गया जब भारत-पाकिस्तान में जंग शुरू हो गई। पाकिस्तानप्रेमी निक्सन ने सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर के जरिए भारत के खिलाफ मोर्चेबंदी की कोशिश की। यही नहीं विध्वंसक सातवां बेड़ा बंगाल की खाड़ी की तरफ रवाना कर दिया। जब ब्रेझनेव को इसकी जानकारी नई दिल्ली से मिली तो तिलमिला उठे। उन्होंने व्लॉडिवोस्टोक से परमाणु हथियारों से लैस न्यूक्लियर सबमरीन रवाना करने का ऑर्डर जारी कर दिया। अमेरिकी चाल नेस्तनाबूद हो गई।

इस दौरान संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में दो बार भारत के खिलाफ प्रस्ताव लाया गया लेकिन रूस से वीटो कर दिया। इसके पहले भी कश्मीर के मसले पर चार बार भारत के खिलाफ प्रस्ताव आया और हर बार रूस ने भारत का साथ देते हुए वीटो कर दिया। इस बार बारी हमारी है। किसी देश को तटस्थता भी कचोटने लगे तो क्या किया जा सकता है। और इस मुद्दे पर तो हम सब एक हैं। ये आप शशि थरूर के ट्वीट से समझ सकते हैं जिसमें उन्होंने कहा कि संसदीय कमेटी में एस जयशंकर ने शानदार तरीके से यूक्रेन युद्ध पर हमारी नीति सामने रखी। इसी भावना से विदेश नीति चलनी चाहिए। (  एक ब्लाक  से साभार )

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